शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

ग़ज़ल




















आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
बो सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

सुन चुके है बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रशं लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

चाँद रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
आज हम आबाज देते की बेचना जमीर है 



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

4 टिप्‍पणियां:

  1. चाँद रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
    आज हम आबाज देते की बेचना जमीर है
    bahut thik kaha aapne
    My latest post: gandhari ke raj me nari!
    http://kpk-vichar.blogspot.in

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  2. नारी हो न निराश करो मन को - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. सुन चुके है बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
    हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

    खून से खेली है होली आज के इस दौर में
    कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

    सुंदर..अर्थपूर्ण पंक्तियां।

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