बुधवार, 6 जून 2012

ग़ज़ल



कल  तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक  शक्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है

बीती उम्र कुछ इस तरह की खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है

गर कहोगें दिन  को दिन तो लोग जानेगें गुनाह 
अब आज के इस दौर में दिख्रे नहीं इन्सान है

इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये वक़्त की साजिश है या फिर वक़्त का एहसान है

गैर बनकर पेश आते, वक़्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है 

प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर 
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है 
 
ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 4 जून 2012

ग़ज़ल






दुनिया में जिधर देखो हजारो रास्ते  दीखते
मंजिल जिनसे मिल जाए बो रास्ते नहीं मिलते

किस को गैर कहदे हम और किसको  मान  ले अपना
मिलते हाथ सबसे है दिल से दिल नहीं मिलते

करी थी प्यार की बाते कभी हमने भी फूलो से
शिकायत सबको उनसे है क़ी उनके लब नहीं हिलते

ज़माने की हकीकत को समझ  जाओ तो अच्छा है
ख्बाबो  में भी टूटे दिल सीने पर नहीं सिलते

कहने को तो ख्बाबो में हम उनके साथ रहते है
मुश्किल अपनी ये की हकीक़त में नहीं मिलते


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 27 मई 2012

मुक्तक



दिल में जो तमन्ना है जुबां से हम न कह पाते 
नजरो से हम कहतें हैं अपने दिल की सब बातें 
मुश्किल अपनी ये है की   समझ बह कुछ नहीं पातें
पिघल कर मोम हो जाता यदि पत्थर को समझाते


प्रस्तुति: 
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 24 मई 2012

ग़ज़ल


सजाए  मोत का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 
ना जाने क्यों बो अब हमसे कफ़न उधर दिलाने  की बात करते है

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके एक इशारे पर 
ना जाने क्यों बो अब हमसे ज़माने की बात करते है

दर्दे दिल मिला उनसे बो हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर बो हमसे अब मरहम लगाने की बात करते है

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे बो अब चुराने की बात करते है

नजरे जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
न जाने क्यों बो अब हमसे प्यार छुपाने की बात करते है




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 23 मई 2012

मुक्तक


मयखाने की चौखट को कभी मदिर न समझना तुम
मयखाने जाकर पीने की मेरी आदत नहीं थी ...

चाहत से जो देखा मेरी ओर उन्होंने
आँखों में कुछ छलकी मैंने थोड़ी पी थी...




प्रस्तुति: 
मदन मोहन सक्सेना 

ग़ज़ल




बोलेंगे  जो  भी  हमसे  बो ,हम ऐतवार कर  लेगें      
जो कुछ  भी उनको प्यारा  है ,हम उनसे प्यार कर  लेगें 

बो  मेरे   पास  आयेंगे   ये  सुनकर  के   ही  सपनो  में 
 क़यामत  से क़यामत तक हम इंतजार कर लेगें 

मेरे जो भी सपने है और सपनों में जो सूरत है
उसे दिल में हम सज़ा करके नजरें चार कर लेगें

जीवन भर की सब खुशियाँ ,उनके बिन अधूरी है 
अर्पण आज उनको हम जीबन हजार कर देगें 

हमको प्यार है उनसे और करते प्यार बो हमको 
गर  अपना प्यार सच्चा है तो मंजिल पर कर लेगें



ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 22 मई 2012

ग़ज़ल




क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है.
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में ..

एक जमी बक्शी  थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में 

आज नजर आती मायूसी मानाबता के चहेरे पर  
अपराधी को सरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में.
 
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 14 मार्च 2012

ग़ज़ल




जब अपने चेहरे से नकाब हम हटाने लगतें हैं 
अपने चेहरे को देखकर डर जाने लगते हैं

बह हर बात को मेरी दबाने लगते हैं
जब हकीकत हम उनको समझाने लगते हैं

जिस गलती पर हमको बह समझाने लगते है.
बही गलती को फिर बह दोहराने लगते हैं

आज दर्द खिंच कर मेरे पास आने लगतें हैं
शायद दर्द से मेरे रिश्ते पुराने लगतें हैं

दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने  लगतें हैं
मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते हैं 

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

अपना भारत






















अपना भारत जो दुनिया का सुंदर चमन 
सारी दुनिया से प्यारा और न्यारा बतन
ये मंदिर भी अपना और मस्जिद भी अपनी 
इनसे आशा की किरणे बनी पाई गयीं 

हम तो कहते कि मंदिर में रहता खुदा 
जो मंदिर में है न बो इससे जुदा 
नाम लेते ही  अक्सर असर ये हुआ
बातें बिगड़ी छड़ों   में बनाई गयीं 

कोई कहता क़ि मंदिर बनेगा यहाँ
कोई कहता कि मस्जिद रहेगी यहाँ
दूरियां बे दिलों की बढ़ातें गए 
और कह कह के दहशत बढ़ायी गयी 

तुम देखो की भारत में क्या हो रहा 
आज राम रहीमा भी क्या सो रहा 
अपने हाथों बनाया सजाया जिसे 
उसे जलाकर दिवाली मनाई  गयी

अपने साथी  सखा जो दिलों में रहे 
प्यार उनसे हमेशा हम करते रहें 
उनके खूनों से  हाथों को हमने रँगा
इस तरीके से होली मनाई गयी

आज सूरत की सूरत को क्या हो गया 
देखो अब्दुल का बालिद कहाँ खो गया 
अब सीता अकेली ही दिखती है क्यों 
आज जीबित चिता ही जलाई गयी

अब तो होली में आता नहीं है मजा 
ईद पर भी   ना हम तो गले ही मिले
आज अपना हमें कोई कहता नहीं
प्यार की सारी बातें भुलाई गयीं 

आज मंदिर में राम भी दिखता नहीं 
मुझे मेरा खुदा भी है रूठा  हुआ
बो युइक्ती जो  हमको थी बंधे हुयी
पल भर में सभी बे मिटाईं गयीं

हमको दुनिया में हर पल तो रहना नहीं 
खली हाथो ही जाना पड़ेगा बहां
देख दुनिया हँसी अपनी बुध्हि फसें 
सो दुनियां हँसी यूँ बनाई गयीं   

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना